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बुधवार, 3 मई 2017

जानिए, कौन था धरती का पहला मानव, कैसे हुआ था उसका जन्म aanie, kaun tha dharatee ka pahala maanav, kaise hua tha usaka janm

जानिए, कौन था धरती का पहला मानव, कैसे हुआ था उसका जन्म

Know, who was the first human on earth, how was born

कौन था दुनिया का पहला व्यक्ति? यह सवाल हमेशा हमारे जेहन में उठता रहता है। यह सवाल बहुत रोचक है, क्योंकि उसके बारे में हर कोई जानना चाहता है जिससे इतनी बड़ी दुनिया खड़ी हुई। लेकिन इस सवाल के जवाब को लेकर कई मान्यताएं रही हैं।
हिन्दू धर्म के पुराण के अनुसार दुनिया के पहले व्यक्ति का नाम 'मनु' था। वहीं पश्चिमी सभ्यता के अनुसार दुनिया का पहला व्यक्ति 'एडेम' था। पुराण में कहा गया है कि मनु की रचना भगवान ब्रह्मा ने की थी। माना जाता है कि भगवान ब्रह्मा ने दो लोगों (स्त्री और पुरुष) को बनाया था, इसमें एक का नाम था 'मनु' और दूसरा 'शतरूपा'। दुनिया में जितने भी लोग मौजूद हैं यह सभी मनु से उत्पन्न हुए हैं। 
पुराणों के अनुसार जब ब्रह्मा ने देवों, असुरों और पित्रों निर्माण कर दिया। इसके बाद वे शक्तिहीन महसूस करने लगे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या बनाएं। उसी समय उनके अंदर से एक काया उत्पन्न हुई। वो उनकी तरह ही दिखने वाली परछाई जैसी दिख रही थी। इसी को संसार का पहला मानव 'मनु' कहा गया।
पश्चिमी सभ्यता का पहला मानव 'ऐडम'पश्चिमी सभ्यता के अनुसार बाइबल में भी ईश्वर के शरीर से एक परछाईं ने जन्म लिया था। इसे 'एडेम' का नाम दिया गया। एडेम के साथ ही भगवान ब्रह्मा की 'शतरूपा'की तरह ही पश्चिमी सभ्यता में भी 'एम्बेला' नाम के स्त्री का जन्म हुआ था। दोनों सभ्यताओं में एक स्त्री और एक पुरुष के जन्म की बात कही गई है, यही बात दोनों सभ्यताओं को काफी भिन्न बनाती हैं। 

बाइबल में लिखी गई कहानी के अनुसार एडेम का निर्माण खुद ईश्वर ने किया था लेकिन दूसरी ओर मनु तो स्वयं भगवान ब्रह्मा के शरीर से काया बनकर उत्पन्न हुआ था। दूसरी ओर मनुष्य का पहला स्त्री रूप बाइबल के अनुसार मनु की पसली द्वारा बनाया गया था लेकिन पुराण के मुताबिक शतरूपा का जन्म भी भगवान ब्रह्मा की निकली काया से ही हुआ था। दोनों सभ्यता और धर्मों के अनुसार भगवान और इश्वर द्वारा इन पहले मानवों को धरती पर एक दुनिया की उत्पत्ति का आदेश दिया गया।

‘मनुष्य’ शरीर कैसे बना और क्या है उसका रहस्य?

‘मनुष्य’ शरीर कैसे बना और क्या है उसका रहस्य?

श्रीमहाविष्णु को एक बार प्रसन्न मुद्रा में बैठे देखकर वैनतेय नामधारी गरुड़ ने उनसे पूछा, "हे परात्पर। हे परमपुरुष। हे जगन्नाथ। मैं यह जानना चाहता हूं कि जीव किस प्रकार जन्म और मृत्यु का कारण भूत बनता है। किन कारणों से वह स्वर्ग और नरक भोगता है? कैसे वह प्रेतात्मा बनकर कष्ट झेलता है?" इस पर अंतर्यामी श्रीमहाविष्णु ने गरुड़ पर प्रसन्न होकर उनको जन्म-मरण का रहस्य बताया। इस कारण से यह कथा गरुड़ पुराण नाम से लोकप्रिय बन गई। 
नैमिशारण्य में वेदव्यास के शिष्य महर्षि सूत ने शौनक आदि मुनियों को यह वृत्तांत सुनाया, "हे मुनिवृंद, वैनतेय ने श्रीमहाविष्णु से प्रश्न किया था कि हाड़-मांस, नसें, रक्त, मुंह, हाथ-पैर, सिर, नाक, कान, नेत्र, केश और बाहुओं से युक्त जीव के शरीर का निर्माण कैसे होता है? श्रीमहाविष्णु ने इसके जो कारण बताए, वे मैं आपको सुनाता हूं। 
प्राचीन काल में देवता और राक्षसों के बीच भयानक युद्ध हुआ। इस युद्ध में इंद्र ने वृत्रासुर का संहार किया। परिणामस्वरूप इंद्र ब्रह्महत्या के दोष के शिकार हुए। इंद्र भयभीत होकर ब्रह्मा के पास पहुंचे और उनसे निवेदन किया कि वे उनको इस पाप से मुक्त कर दें। ब्रह्मा ने ब्रह्महत्या के दोष को चार भागों में विभाजित कर एक अंश स्त्रियों के सिर मढ़ दिया। स्त्रियों की प्रार्थना पर दया होकर ब्रह्मा ने उसके निवारण का उपाय बताया कि स्त्रियों के रजस्वला के प्रथम चार दिन तक ही उन पर यह दोष बना रहेगा।
ब्रह्मा ने कहा कि उन दिनों में स्त्रियां घर से बाहर रहेंगी। पांचवें दिन स्नान करके वे पवित्र बन जाएंगी। ये चार दिन वे पति के साथ संयोग नहीं कर सकेंगी। रजस्वला के छठे दिन से अठारह दिन तक यदि छठे, आठवें, दसवें, बारहवें, चौदहवें, सोलहवें और अठारहवें दिन वे पति के साथ संयोग करती हैं तो उन्हें पुरुष संतान की प्राप्ति होगी। ऐसा न होकर पांचवें दिन से लेकर अठारह दिन तक विषम दिनों में यानी पांच, सात, नौ, ग्यारह, तेरह, पंद्रह और सत्रहवें दिन मैथुन क्रिया संपन्न करने पर स्त्री संतान होगी। इसलिए पुत्र प्राप्ति करने की कामना रखनेवाले दम्पतियों को सम दिनों में ही दांपत्य सुख भोगना होगा।
ऋतुमती होने के चार दिन पश्चात अठारह दिन तक के सम दिन में मैथुन से यदि नारी गर्भ धारण करती है, तो गर्भस्थ शिशु की क्रमश: वृद्धि हो सुखी प्रसव होगा। वह शिशु शील, संपन्न और धर्मबुद्धिवाला होगा। रजस्वला के पांचवें दिन स्त्रियों को खीर, मिष्ठान्न आदि मधुर पदार्थो का सेवन करना होगा। तीखे पदार्थ वर्जित हैं। साधारणत: पांचवें दिन के पश्चात आठ दिनों के अंदर गर्भधारण होता है।
गर्भधारण के संबंध में भी कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक है। शयन गृह में दम्पति को अगरबत्ती, चंदन, पुष्प, तांबूल आदि का उपयोग करना चाहिए। इनके सेवन और प्रयोग से दम्पति का चित्त शीतल होता है। तब उन्हें परस्पर प्रेमपूर्ण रति-क्रीड़ा में पति और पत्नी के शुक्र और श्रोणित का संयोग होता है। परिणामस्वरूप पत्नी गर्भ धारण करती है। क्रमश: गर्भस्थ पिंड शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की भांति दिन-प्रतिदिन प्रवर्धगमान होगा। रति क्रीड़ा के समय यदि पति के शुक्र की मात्रा अधिक स्खलित होती है तो पुरुष संतान होती, पत्नी के श्रोणित की मात्रा अधिक हो जाए तो स्त्री संतान के रूप में गर्भ शिशु का विकास होता है। अगर दोनों की मात्रा समान होकर पुरुष शिशु का जन्म होता है तो वह नपुंसक होगा। गर्भ धारण के रतिक्रीड़ा में स्खलित इंद्रियां गर्भ-कोशिका में एक गोल बिंदु या बुलबुला उत्पन्न करता है।
इसके बाद पंद्रह दिनों के अंदर उस बिंदु के साथ मांस सम्मिलित होकर विकसित होता है। फिर क्रमश: इसकी वृद्धि होती जाती है। एक महीने के पूरा होते-होते उस पिंड से पंच तत्वों का संयोग होता है। दूसरे महीने पिंड पर चर्म की परत जमने लगती है। तीसरे महीने में नसें निर्मित होती हैं। चौथे महीने में रोम, भौंहें, पलकें आदि का निर्माण होता है। 
पांचवें महीने में कान, नाक, वक्ष; छठे महीने में कंठ, सिर और दांत तथा सातवें महीने में यदि पुरुष शिशु हो तो पुरुष-चिह्न्, स्त्री शिशु हो तो स्त्री-चिह्न् का निर्माण होता है। आठवें महीने में समस्त अवयवों से पूर्ण शिशु का रूप बनता है। उसी स्थिति में उस शिशु के भीतर जीव या प्राण का अवतरण होता है। नौवें महीने में जीव सुषुम्न नाड़ी के मूल से पुनर्जन्म कर्म का स्मरण करके अपने इस जन्म धारण पर रुदन करता है। दसवें महीने में पूर्ण मानव की आकृति में माता के गर्भ से जन्म लेता है।
प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान-ये पांच 'प्राण वायु' कहलाते हैं। इसी प्रकार नाग, कर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय नामक अन्य पांच वायु भी हैं। इस शरीर में शुक्ल, अस्थियां, मांस, जल, रोम और रक्त नामक छह कोशिकाएं हैं। नसों से बंधित इस स्थूल शरीर में चर्म, अस्थियां, केश, मांस और नख-ये क्षिति या पृथ्वी से सम्बंधित गुण हैं।
मुंह में उत्पन्न होनेवाला लार, मूत्र, शुक्ल, पीव, व्रणों से रिसनेवाला जल-ये आप यानी जल गुण हैं। भूख, प्यास, निद्रा, आलस्य और कांति तेजोगुण हैं यानी अग्नि गुण है। इच्छ, क्रोध, भय, लज्जा, मोह, संचार, हाथ-पैरों का चालन, अवयवों का फैलाना, स्थिर यानी अचल होना-ये वायु गुण कहलाते हैं। ध्वनि भावना, प्रश्न, ये गगन यानी आकाशिस्थ गुण है। कान, नेत्र, नासिका, जिा, त्वचा, ये पांचों ज्ञानेंद्रिय हैं। इडा, पिंगला और सुषुम्ना ये दीर्घ नाड़ियां हैं। 
इनके साथ गांधारी, गजसिंह, गुरु, विशाखिनी-मिलकर सप्त नाड़ियां कहलाती हैं। मनुष्य जिन पदार्थो का सवेन करता है उन्हें उपरोक्त वायु उन कोशिकाओं में पहुंचा देती हैं। परिणामस्वरूम उदर में पावक के उपरितल पर जल और उसके ऊध्र्व भाग में खाद्य पदार्थ एकत्रित हो जाते हैं। इस जटराग्नि को वायु प्रज्वलित कर देती है।
मानव शरीर का गठन अति विचित्र है। इस शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोम, बत्तीस दांत, बीस नाखून, सत्ताईस करोड़ शिरोकेश, तीन हजार तोले के वजन की मांसपेशियां, तीन सौ तोले वजन का रक्त, तीस तोले की मेधा, तीस तोले की त्वचा, छत्तीस तोले की मज्जा, नौ तोले का प्रधान रक्त और कफ, मल व मूत्र-प्रत्येक पदार्थ नौ तोले के परिमाण में निहित हैं। इनके अतिरिक्त अंड के भीतर की सारी वस्तुएं शरीर के अंदर समाहित हैं। 
इसी प्रकार शरीर के भीतर चौदह भुवन या लोक निहित हैं- ये भुवन शरीर के विभिन्न अंगों के प्रतीक हैं, जैसे-दायां पैर अतल नाम से व्यवह्रत है, तो एड़ी वितल, घुटना सुतल, घुटने का ऊपरी भाग यानी जांध रसातल, गुह्य पाश्र्व भाग तलातल, गुदा भाग महातल, मध्य भाग पाताल, नाभि स्थल भूलोक, उदर भुवर्लोक, ह्रदय सुवर्लोक, भुजाएं सहर्लोक, मुख जनलोक, भाल तपोलोक, शिरो भाग सत्यलोक माने जाते हैं।
इसी प्रकार त्रिकोण मेरु पर्वत, अघ: कोण, मंदर पर्वत, इन कोणों का दक्षिण पाश्र्व कैलाश वाम पाश्र्व हिमाचल, ऊपरी भाग निषध पर्वत, दक्षिण भाग गंधमादन पर्वत, बाएं हाथ की रेखा वरुण पर्वत नामों से अभिहित हैं।
अस्थियां जम्बू द्वीप कहलाती हैं। मेधा शाख द्वीप, मांसपेशियां कुश द्वीप, नसें क्रौंच द्वीप, त्वचा शालमली द्वीप, केश प्लक्ष द्वीप, नख पुष्कर द्वीप नाम से व्यवहृत हैं। जल समबंधी मूत्र लवण समुद्र नाम से पुकारा जाता है तो थूक क्षीर समुद्र, कफ सुरा सिंधु समुद्र, मज्जा आज्य समुद्र, लार इक्षु समुद्र, रक्त दधि समुद्र, मुंह में उत्पन्न होनेवाला जल शुदार्नव नाम से जाने जाते हैं।
मानव शरीर के भीतर लोक, पर्वत और समुद्र ही नहीं बल्कि ग्रह भी चक्रों के नाम से समाहित हैं। प्रधानत: मानव के शरीर में दो चक्र होते हैं- नाद चक्र और बिंदु चक्र। नाद चक्र में सूर्य और बिंदु चक्र में चंद्रमा का निवास होता है। इनके अतिरिक्त नेत्रों में अंगारक, ह्रदय में बुध, वाक्य में गुरु, शुक्ल में शुक्र, नाभि में शनि, मुख में राहू और कानों में केतु निवास करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य के भीतर भूमंडल और ग्रह मंडल समाहित है। यही मानव जन्म और शरीर का रहस्य है।

इंसान की उत्पत्ति मनुष्य कैसे बना manav ki utpatti

इंसान की उत्पत्ति मनुष्य कैसे बना manav ki utpatti

यह एक अनसुलझी रोचक पहेली है इसका सटीक प्रमाण कोई भी नहीं दे पाया है, इंसान की उत्पत्ति आज भी एक रहस्य है संसार में 2 मत चलते आ रहे है एक है धार्मिक तो दूसर वैज्ञानिकों हम दोनों हीं मतों के प्रमाणो को बताएँगे फिर आप बताये कौन सही है -

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार - सारे ब्रह्माण्ड का रचयिता भगवान है वह सर्वव्यापी एवं सर्वशक्तिमान है। उसी ने सूर्य, चांद, तारे, ग्रह, उपग्रह, जल थल, पेड़-पौधे एवं समस्त जीवों की रचना की है। मानव का पृथ्वी पर आगमन भी उसकी इच्छा और कृपा से हुआ है धार्मिक विद्वानों का मानना है कि आज से अरबों वर्ष पूर्व भगवान ने ऋषि मनु के रूप में प्रथम पुरुष, और शतरूपा के रूप में प्रथम स्त्री, की रचना की और सृष्टि की वृद्धि का दायित्व उन पर सौंपा इस दम्पत्ति ने सनक, सनातन, सनन्तकुमार एवं सनन्दन नामक चार पुत्रों को जन्म दिया 
परंतु इन चारों पुत्रों ने शादी नहीं की और आजीवन ब्रहम्चर्य का पालन किया अतः प्रभु का सौंपा गया कार्य सम्पूर्ण नहीं हो सका भगवान ने फिर नारद मुनि को इस कार्य के लिये मृत्यु लोक में भेजा। लेकिन नारद जी भी सृष्टि की वृद्धि में कोई योगदान नहीं कर पाये क्योंकि उन्होंने अपने जीवनकाल में किसी कन्या से विवाह नहीं किया। अन्त में इस पुनीत कार्य का शुभारम्भ कश्यप ऋषि ने अपनी पत्नी अदिति एवं दिति के सहयोग से किया। ऐसा कहा जाता है कि अदिति से देवताओं की उत्पत्ति हुई तथा दिति से असुरो का जन्म हुआ। इसके पश्चात् सुरों और असुरो के परिवारों में निरन्तर वृद्धि होती गयी और पृथवी पर मनुष्यों का आधिपत्य होता चला गया

इस धार्मिक अवधारण के अनुसार जिस मानव को प्रथम बार पृथ्वी पर भेजा, वह आदि मानव शारीरिक एवं मानसिक रूप से पूर्णतः विकसित था आज के मनुष्य की तुलना में वह अधिक बलशाली, बुद्धिमान एवं तपस्वी था। असम्भव से असम्भव कार्य करने में वह समर्थ था। नारद जी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। वह स्वर्गलोक और मृत्युलोक में सशरीर भ्रमण कर सकते थे। इसके पश्चात् रामायण एवं महाभारत काल में पैदा होने वाले पुरुष भी आधुनिक मनुष्य से अधिक बलवान थे। इस युग में जन्म लेने वाला कोई भी व्यक्ति महाभारत के भीम जैसा बलशाली नहीं है, जो हाथियों को उठाकर आसमान में फेंक दे। हमारा बड़ा से बड़ा तीरन्दाज भी अर्जुन की तरह घूमती मछली की ऑख की परछाईं को देखकर भेद नही सकता। आज तक इसयुग में किसी ऐसे शिशु का जन्म नहीं हुआ है जिसने गर्भावस्था में ही चक्रव्यूह तोड़ने की विद्या सीख ली हो।ओलम्पिक में गोल्ड मेडल जीतने वाले आज के धनुष धारी में भी इतना सामर्थ्य नही है कि वह भीष्म पितामह की भांति बाणों से गंगा नदी का बहाव रोक सकें।

वैज्ञानिक विचार धारा - धार्मिक विचारों के ठीक विपरीत है विभिन्न क्षेत्रों में किए गए अनुसंधानों से वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पृथ्वी का प्रत्येक प्राणी विकास की एक प्राकृतिक प्रक्रिया की उपज है। इस प्रक्रिया के अनुसार भिन्न भिन्न जीवों की उत्पत्ति भिन्न-भिन्न समय पर तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के भौगोलिक परिवेश में होती है।

आदिकाल से लेकर आजतक पृथ्वी के प्राकृतिक वातावरण में अनगिनत बदलाव आये हैं। इस बदलते पर्यावरण के अनुकूल बनाने के लिए प्रत्येक जीव अपने अंदर अनेकों परिवर्तन करता है तथा विकास की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरता है। चिंपैंजी और गोरिल्ला से लेकर आजतक मनुष्य ने भी विकास की विभिन्नअवस्थाओं से गुजरते हुये आधुनिक स्वरूप धारण किया है 
According to science - जीव निर्धारित मात्रा में ईधन लेकर स्वयं एक सेल्स के रूप में जन्म लेता है और ईधन का समाप्ति पर स्वतः ही समाप्त हो जाता है। न कोई इसे मारता है न ही कोई इसे जन्म देता है। एक अध्ययन के अनुसार, सूर्य भी 7.6 बिलियन वर्षों के बाद अपने ईधन की समाप्ति के पश्चात् स्वयं ही नष्ट होकर ब्लैक होल में परिवर्तित हो जायेगा तथा अपने चारों ओर स्थित सभी ग्रहों तथा उपग्रहों को निगल जायेगा। विकास और विनाश की यह प्रक्रिया सतत् है इसी प्राकृतिक प्रक्रिया के कारण प्रत्येक प्राणी का जन्म होता है तथा इसी के कारण उसका अन्त हो जाता है।
विभिन्न काल की चट्टानों (Rocks) में छिपे पड़े कंकालों एवं जीवांशा के अध्ययन से पता चलता है कि जब पृथ्वी परजीव के पनपने के लिये उपयुक्त वातावरण उपलब्ध हो जाता है तब ही जीव का सृष्टि पर आगमन होता है। लगभग 600 मिलियन वर्ष पूर्व पृथ्वी का थल एवं वायुमण्डल बहुत गर्म था। इस प्रकार के पर्यावरण में किसी भी प्रकार के जीव का विकसित होना सम्भव नहीं था। अतः इस युग में करोड़ों वर्षों तक पृथ्वी बिना जीवन के वीरान ही पड़ी रही। यही कारण है पृथ्वी के इस प्राचीनतम प्रारम्भिक युग को अजोईक अथवा जीवन-रहित युग कहा जाता है
धीरे धीरे पृथ्वी ठण्डी होती गयी और प्रीकैम्ब्रियन युग के आते-आते, पृथ्वी पर कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुये। Hydrogen और Oxigen गैसों मिलने से जल की उत्पत्ति हुई,

Biology - पृथ्वी पर सागरों एवं महासागरों का उद्भव हुआ। धरती पर जीवन की शुरूआत पहली बार इन सागरों के जल से ही हुई जल से उत्पन्न हुये जीवों का शरीर बहुत कोमल था पौधो पर फूल नहीं खिलतें थे। इसीलिए इस युग के पौधों को नान फलॉवरिंग अर्थात् फूलरहित कहा जाता है।

जैसे-जैसे समय और परिस्थियां बदलती गयी, जीवों में परिवर्तन होते गये। कुछ जीव लुप्त हो गये तथा कई नई प्रजातियों का अभ्युदय हुआ। ईसा से लगभग 500 मिलियन वर्ष पूर्व, कैम्ब्रीयन युग में सागरों में ऐसे जीवों की भरमार हो गई थी जिनमें रीढ़ की हड्डी(spinal cord) ही नहीं थी। इन जीवों को इनवर्टीब्रेट कहा जाता है। जल की रानी मछली का पर्दापण आज से 350 मिलियन वर्ष पूर्व हुआ। सिल्युरियन काल की इस मछली में फेफड़े नहीं थे। करोडों वर्षों के पश्चात् मछलियों ने अपने शरीर में फेफड़ों का विकास किया। इसी काल में जमीन पर पनपने वाले पौधों की भी उत्पत्ति हुई। परन्तु इस कालके आते-आते उन जीवों का पृथ्वी से बिल्कुल सफाया हो चुका था, जिनके शरीर में रीढ़ की हड्डी नहीं थी।

जैसे-जैसे समय बीतता गया, धरती के पर्यावरण में भारी बदलाव आते गये। जो जीव इन परिवर्तनों के अनुसार अपने आप को ढाल नही सके, वे हमेशा के लिये विलुप्त हो गये। एम्फीबियन प्रजाति के जीव, जो जमीन पर रह सकते थे तथा पानी में भी (जैसे मेढक, मगरमछ, कछुआ ) आज से 320 मिलियन वर्ष पूर्व डिवोनियन काल में पृथ्वी पर प्रकट हुये।

मैसोजोइक युग के जुरासिक काल में डायनासोर का आगमन हुआ। इस भारी भरकम जीव ने लगभग 90 मिलियन वर्षों तक पृथ्वी पर साम्राज्य किया। परन्तु एक उल्कापिण्ड के पृथ्वी से टकराने से भूमण्डल का पर्यावरण इतना धूल-धूसरित हो गया कि सूर्य का प्रकाश भी कई वर्षों तक जमीन तक नहीं पहुंच पाया। पर्यावरण के इस बदलाव को डायनासोर सहन नहीं कर सके और आज से 65 मिलियन वर्ष पृथ्वी से हमेशा के लिये गायब हो गये।

अनुमान scientists - इंसान आने वाले कुछ बर्षो में बदलाब करेगा प्रकृति के अनुसार और फिर इंसान भी दो भागो में विकास करेगा दोनों का जीनोम अलग हो जायेगा या क़ुदरत (Nature) में भयंकर बदलाब आयेगा भूकम्प आने से सभी नष्ठ हो जायेगा रहेगा केवल पानी।